स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के समकालीन एवं उनके अनुयायी, भारत रत्न से सम्मानित, सीमांत गाँधी के नाम से विख्यात,महान स्वतंत्रता सेनानी 'खान अब्दुल गफ्फार खान 'की आज (20 जनवरी) पुण्यतिथि है। अपने 98 वर्ष के जीवन में वे 35 वर्ष जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी।
गाँधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गाँधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर खाँ साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे।
अविभाजित भारत के समय से ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बाचा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन ने गफ्फार खान जी की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखा है - 'भारत में दो गाँधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खाँ। उनका जन्म पेशावर (पाकिस्तान) के एक सम्पन्न में हुआ था। गफ्फार खान बचपन से होनहार बिरवान रहे। अफ़ग़ानी लोग उन्हें बाचा ख़ान कहकर बुलाते थे।'
देश के लिए उनके दिल में अथाह प्यार था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने के लिए सन् 1920 में 'खुदाई खिदमतगार' (सुर्ख पोश) संगठन बनाया। खुदाई खिदमतगार फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक।
उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान जितने सत्यनिष्ठ थे, उतने ही लड़ाकू थे। अंग्रेजों से संघर्ष के साथ ही उन्होंने पठानी कबीलों के हितों के लिये भी कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राणदंड हुये। उनके पिता बैराम खान शांत और आध्यात्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे।
बीसवीं सदी में के आरंभ बादशाह खान पख़्तूनों के प्रमुख नेता बन गए और महात्मा गाँधी जी के सत्याग्रह को अपनाया । तभी से उनका नाम ' सीमांत गाँधी' पड़ गया।
गाँधी जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल गफ्फार खान को बादशाह ख़ान कहा करते थे। स्वाधीनता आन्दोलन में उन्हें कई बार कठोर जेल यातनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्होंने जेल में ही सिख गुरुग्रंथ, गीता का अध्ययन किया। उसके बाद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए गुजरात की जेल में उन्होंने संस्कृत के विद्वानों और मौलवियों से गीता और क़ुरान की कक्षायें आयोजित करवायीं।
अंग्रेज़ों ने जब 1919 में पेशावर में मार्शल लॉ लगाया तो ख़ान ने उनके सामने शांति प्रस्ताव रखा और बदले में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। सन 1930 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ही अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को जेल से मुक्त किया गया।
सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तो ख़ान मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सन् 1942 में वह फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद तो 1947 में अंग्रेजों से भारत के आजाद होने के बाद ही उन्हें जेल से आजादी मिली।
देश के विभाजन से पूर्व तक उनके संगठन ' ख़ुदाई ख़िदमतगार 'ने कांग्रेस का साथ दिया। वह भारत के विभाजन मुखर विरोधी रहे। स्वाधीनता प्राप्ति एवं विभाजन के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान में रहकर पख़्तून अल्पसंख़्यकों के हितों हेतु संघर्ष किया । पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। उन्हें अपना निवास क्षेत्र पाकिस्तान से बदलकर अफगानिस्तान करना पड़ा। वह सदैव भारत से मानसिक रूप से जुड़े रहे।
उन्होंने सत्तर के दशक में पूरे भारत का भ्रमण किया। सन 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' में भी शामिल हुए। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान कहते थे कि इस्लाम अमल, यकीन और मोहब्बत का नाम है। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ऐतिहासिक 'लाल कुर्ती' आन्दोलन चलाया।
अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'
सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाकू मानता रहा। एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे। 'नमक सत्याग्रह' के दौरान 23 अप्रैल 1930 को खान अब्दुल गफ्फार खाँ के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के 'किस्सा ख्वानी' बाजार में पहुंचा। अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। लगभग ढाई सौ लोग मारे गए लेकिन प्रतिहिंसा की कोई हरकत नहीं हुई।
सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 'ख़ुदाई ख़िदमतगार ' संगठन की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच 'लाल कुर्ती ' आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई। उसके बाद उन्हें काफी यातनायें सहनी पड़ीं।
जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए अपना आन्दोलन और तेज़ कर दिया। सन् 1947 में भारत विभाजन के बाद सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक विकल्प को मानने की बाध्यता सामने आ गई। आखिरकार जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प मान्य हुआ।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तब भी तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की मांग करते रहे लेकिन पाकिस्तान सरकार ने उनके आन्दोलन को कुचल दिया।
वे दो बार ' नोबेल शांति पुरस्कार ' के लिए नामांकित हुए । वे सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे। वे नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी की भाँति विश्व में सम्मान के पात्र हैं।
पुण्य तिथि पर उन्हें शत् शत् नमन्।
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