२०१८ की लघुकथाएँ: २
समानाधिकार
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"माय लार्ड! मेरे मुवक्किल पर विवाहेतर अवैध संबंध बनाने के आरोप में कड़ी से कड़ी सजा की माँग की जा रही है। उसे धर्म, नैतिकता, समाज और कानून के लिए खतरा बताया जा रहा है। मेरा निवेदन है कि अवैध संबंध एक अकेला व्यक्ति कैसे बना सकता है? संबंध बनने के लिए दो व्यक्ति चाहिए, दोनों की सहभागिता, सहमति और सहयोग जरूरी है। यदि एक की सहमति के बिना दूसरे द्वारा जबरदस्ती कर सम्बन्ध बनाया गया होता तो प्रकरण बलात्कार का होता किंतु इस प्रकरण में दोनों अलग-अलग परिवारों में अपने-अपने जीवन साथियों और बच्चों के साथ रहते हुए भी बार-बार मिलते और दैहिक सम्बन्ध बनाते रहे - ऐसा अभियोजन पक्ष का आरोप है।
भारत का संविधान भाषा, भूषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, व्यवसाय या लिंग किसी भी आधा रपर भेद-भाव का निषेध कर समानता का अधिकार देता है। यदि पारस्परिक सहमति से विवाहेतर दैहिक संबंध बनाना अपराध है तो दोनों बराबर के अपराधी हैं, दोनों को एक समान सजा मिलनी चाहिए अथवा दोनों को दोष मुक्त किया जाना चाहिए। अभियोजन पक्ष ने मेरे मुवक्किल के साथ विवाहेतर संबंध बनानेवाली के विरुद्ध प्रकरण दर्ज नहीं किया है, इसलिए मेरे मुवक्किल को भी सजा नहीं दी जा सकती।
वकील की दलील पर न्यायाधीश ने कहा- "वकील साहब आपने पढ़ा ही है कि भारत का संविधान एक हाथ से जो देता है उसे दूसरे हाथ से छीन लेता है। मेरे सामने जिसे अपराधी के रूप में पेश किया गया है मुझे उसका निर्णय करना है। जो अपराधी के रूप में प्रस्तुत ही नहीं किया गया है, उसका विचारण मुझे नहीं करना है। आप अपने मुवक्किल के बचाव में तर्क दें पर संभ्रांत महिला और उसके परिवार की बदनामी न हो इसलिए उसका उल्लेख न करें।"
अपराधी को सजा सुना दी गयी और सिर धुनता रह गया समानाधिकार।
६-१-२०१८
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