लेख
विश्वास का संकट
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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आज दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र भारत और अमेरिका विश्वास के संकट से गुजर रहे हैं।
भारत दुनिया का सर्वाधिक आबादीवाला देश है। लोकतंत्र में 'लोकमत' सबसे अधिक महत्व पूर्ण है। 'लोक' अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जब 'तंत्र' का चयन करता है तब लोकतंत्र है। जब 'लोक' पर 'तंत्र' हावी हो जाता है तब लोकतंत्र दम तोड़ने लगता है। भारत का दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् किसी भी दल का शासन रहा हो, 'लोक' के अधिकार निरंतर घटे हैं और 'तंत्र' निरंतर ताकतवर होता गया है।
'लोक' और 'तंत्र' के मध्य सेतु होता है 'जनप्रतिनिधि'। 'लोक' द्वारा बहुमत से निर्वाचित 'प्रतिनिधि' को लोकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील होकर संघर्ष करना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता तो 'लोक' में 'तंत्र' (शासन-प्रशासन) के प्रति असंतोष बढ़ता जाता है। यह असंतोष प्रेशर कुकर की भाप की तरह बढ़ता रहे तो जनांदोलनों को जन्म देता है। संवेदनहीन 'तंत्र' जनाकांक्षाओं को जानते हुए भी न जानने का अभिनय करे, जनमत की अनदेखी करे तो जन-असंतोष से क्रांति होना स्वाभाविक है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण हों, अन्ना हजारे हों, या मेघा पाटकर जैसे जननायक जन-भावनाओं को स्वर देकर संविधान के अनुरूप समाधान हेतु 'तंत्र' पर दवाब बनाते हैं। विधि की विडंबना है कि जो राजनैतिक दल सत्ता में नहीं होते वे इन आंदोलनों का समर्थन करते हैं किंतु सत्ता पाते ही जनांदोलनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसी स्थिति में विश्वास का संकट उपस्थित होना स्वाभाविक है।
किसान आंदोलन की स्थिति ऐसी ही है। सरकार का कहना है कि विपक्षी दल किसानों को भरमा रहे हैं, किसान कहते हैं कि उन्हें कोई नहीं भरमा रहा। सरकार कहती है कानून किसानों के भले के लिए हैं, किसान कहते हैं कानून पूँजीपतियों के भले के लिए हैं। किसानों ने अपने आंदोलन को इतना अनुशासित व व्यवस्थित रखा है जिसकी कोई मिसाल नहीं है। सभी राजनैतिक दलों के लिए आंदोलन के दरवाजे बंद रखे गए हैं। इसके बाद भी सरकार द्वारा किसानों को कटघरे में खड़ा किया जाना विडंबना ही है।
ये वही किसान हैं जिन्होंने वर्तमान सरकार के समर्थन में मत दिए हैं। कोई राजनैतिक दल और सरकार अपने मतदाताओं का विश्वास न जीत सके तो उसे आत्मावलोकन करना चाहिए। किसान जिन स्थानों से आते हैं, वहाँ भाजपा के कार्यकर्ता और नेता हैं, वे क्यों नहीं सरकार का पक्ष समझा सके? सरकार ने कानून बनाने के पूर्व किसानों का पक्ष क्यों नहीं जाना? कानूनों को हड़बड़ी में क्यों पारित किया गया? संसद में बहस क्यों नहीं कराई गयी? संसदीय समिति के माध्यम से कानून के विविध पक्षों पर अध्ययन कर निष्कर्ष क्यों नहीं प्रकाशित किये गए? आरंभ में किसानों की आवाज की अनसुनी क्यों की गयी? किसानों को प्रशासनिक अधिकारियों की समिति के चक्रव्यूह में घेरकर भटकाने की कोशिश ने किसानों के असंतोष को भड़काया। सत्तासीन दल के कतिपय नेताओं द्वारा किसान आंदोलन को देश विरोधी, विदेश द्वारा प्रायोजित, विपक्ष द्वारा प्रेरित आदि कह कर जले पर नमक छिड़कने की अनुत्तरदायित्वपूर्ण कुचेष्टा की जाना, निंदनीय है। ऐसे नासमझी भरे वक्तव्य विश्वास के संकट को बढ़ाते हैं।
वर्तमान स्थिति में क्यों नहीं किसानों का पक्ष जानकर इन कानूनों को समाप्त कर नए कानून ले आए जाएँ? लोकतंत्र का तकाजा है कि 'लोक' की आवाज को लोक के प्रतिनिधि सुनें, समझें तदनुसार कानून और नीति को बदलें। देश के लोकप्रिय और समर्थ प्रधान मंत्री जी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर, किसानों के विश्वास की रक्षा करें तभी लोकतंत्र की जीत होगी।
भारत में एक ऐसा भी नेता हुआ जिसके कहने पर पराधीन होते हुए भी लोगों ने धन हुए जेवर देकर भारत के बाहर सेना बनाने की सामर्थ्य दी। लोक विश्वास जीतनेवाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कौन भुला सकता है। सर्वोदय आंदोलन में विनोबा जी के कहने लाखों एकड़ जमीनें दान में दी गईं। यह जनास्था का चमत्कार था। भारत में एक प्रधान मंत्री ऐसा भी हुआ जिसके एक बार कहने पर देश के कोने-कोने में, बूढ़े-बच्चे सभी सोमवार की शाम उपवास करते रहे, होटल आदि बंद हो गए। यह नेता और जनता के बीच विश्वास का अभूतपूर्व उदहारण है। स्व. लालबहादुर शास्त्री लोक विश्वास की कसौटी पर खरे उतरे। वर्तमान में जनगण और जननायक के मध्य विश्वसनीयता का संकट न बनने देना सरकार का ही दायित्व है। माननीय प्रधानमंत्री जी अद्भुत और संकल्पित व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्हें 'कृषि प्रधान भारत' और 'भारत माता ग्रामवासिनी' को शांत और विकसित करने के अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए पहल कर किसानों की मंशा को समझकर कानूनों में परिवर्तन कर नया प्रारूप किसानों को बताकर उनका विश्वास जीतना चाहिए।
स्वसमर्थित किसानों के संगठनों की आड़ में आंदोलनरत किसानों की उपेक्षा और अनसुनी लोकतंत्र के स्वास्थ्य हेतु घातक है।
विश्वास का संकट अमेरिका के सामने भी है। 'इस घर को आग लग गई घर के चराग से' को चरितार्थ करते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पहले तो चुनाव परिणाम और प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लगाने का नासमझी भरा कदम उठाया। यदि यह आरोप सत्य होता तो भी सरकार प्रमुख होने के नाते नैतिक जिम्मेदारी ट्रम्प की ही बनती। आरोप निराधार सिद्ध होने पर ट्रम्प को शालीनतापूर्वक पराजय स्वीकार कर शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण करना चाहिए था। इसके विपरीत उन्होंने पने समर्थकों को निरंतर भड़काया। फलत:, समर्थकों ने संसद पर आक्रमण कर निर्वाचन परिणाम घोषणा अवरूद्ध करने का असफल हिंसक प्रयास किया। अमेरिका का लोकतंत्र सारे संसार में उपहास का पात्र बना। ट्रम्प से निकट मित्रता रखनेवाले भारतीय प्रधानमंत्री जी ने भी इस स्थिति में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तान्तरण की आशा व्यक्त की। ट्रम्प के सामने विधिक कार्यवाही और गिरफ़्तारी की आशंका उपस्थित हो। शासन प्रमुख अपने ही देश की निर्वाचन प्रणाली की निष्पक्षता का विश्वास न करे यह शोचनीय है।
दुनिया के दोनों बड़े 'लोकतंत्र' अपने-अपने 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य उपस्थित विश्वास के संकट से उबरें यह दोनों के लिए आवश्यक है। भारत के पास तो 'विश्वासं फलदायकं' की परंपरा और विरासत है। 'भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ' को जीनेवाले हमारे देश में किसान सरकार पर और सरकार किसानों पर विश्वास कर आगे बढ़ें, यही एकमात्र समाधान है।
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जय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
10/01/2021 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
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आप भी इस हलचल में. .....
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