विमर्श - जौहर
एक प्रश्न-उत्तर
संध्या सिंह-
न इतिहास के गौरव से प्रभावित न भविष्य के पतन से आशंकित ...... तटस्थ हो कर आप सबसे एक प्रश्न ;;;कितने लोग बदलती विचारधारा के परिपेक्ष्य में जौहर को आज भी वाजिब कहेंगे ...और महिमामंडित करेंगे .. ...और स्त्री को अस्मिता पर हमले के समय जौहर का सुझाव देंगे ?????
संजीव-
जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था.
जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए परजिर सैनिकों कि पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था जबकि पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.
आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटाने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है.
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