मुक्तिका:
अक्षर उपासक हैं....
संजीव 'सलिल'
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अक्षर उपासक हैं हम गर्व हमको, शब्दों के सँग- सँग सँवर जाएँगे हम.
गीतों में, मुक्तक में, ग़ज़लों में, लेखों में, मरकर भी जिंदा रहे आएँगे हम..
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बुजुर्गों से पाया खज़ाना अदब का, न इसको घटाकर, बढ़ा जाएँगे हम.
चादर अगर ज्यों की त्यों रह सकी तो, आखर भी ढाई सुमिर गाएँगे हम..
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५-६-२०१०
लिखना तो हक है, लिखेंगे हमेशा, न आलोचनाओं से डर जाएँगे हम.
कमियाँ रहेंगी ये हम जानते हैं, दाना बताएँ सुधर पाएँगे हम..
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गम हो, खुशी हो, मुहब्बत-शहादत, न हो इसमें नफ़रत, न गुस्सा-अदावत.
महाकाल के हम उपासक हैं सच्चे, समय की चुनौती को शरमाएँगे हम..
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खलिश हो तो रचना में आती है खूबी, नादां 'सलिल' में खूबी ही डूबी.
फिर भी है वादा, न हम मौन होंगे, कल-कल में धुन औ' बहर गाएँगे हम..
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५-६-२०१७
नैना मिलाओ, लड़ाओ, झुकाओ, नयनों में बसकर तुम्हें भाएँगे हम.
न मुँह तुम फुलाओ, न हम फेर लें मुँह, जाकर न वापिस कभी आएँगे हम..
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हेरेगा दर्पण चटक जाएगा झट, ऊषा को संध्या को तड़पाएँगे हम.
रजनी पुकारेगी तनहा हमें पर, बातों में उसकी न भरमाएँगे हम..
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बहाना न आँसू हमें याद कर तुम, सावन में सुधियाँ बरसाएँगे हम.
फागुन में आएँ बसंती बहारें, कलियों पे रंगीनियत लाएँगे हम..
५-६-२०२१
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