मुक्तिका
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नाजनीं को नमन मुस्कुरा दीजिए
मशविरा है बिजलियाँ गिरा दीजिए
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चिलमनों के न पीछे से अब वार हो
आँख से आँख बरबस मिला दीजिए
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कल्पना ही सही क्या बुरा है अगर
प्रेरणा बन के आगे बढ़ा दीजिए
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कांता के हुए कांत अब तो 'सलिल'
बैठ पलकों पे उनको बिठा दीजिए
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जो खलिश दिल में बाकी रहे उम्र भर
ले के बाँहों में उसको सजा दीजिए
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मुक्तिका:
रातसंजीव
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त २२२१)
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चुपके-चुपके आई रात
सुबह-शाम को भाई रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस भी कहलाई रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
चंदा वर, तारे बारात
हँस करती कुड़माई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
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