ॐ
गीता हिंदी रूपांतरण
अध्याय ४
(महातैथिक जातीय, शुभंगी / शोकहर छंद, १६-१४, ८-८-८-६,
पदांत गुरु, दूसरे-चौथे-छठे चौकल में जगण वर्जित)
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प्रभु बोले कल्पादि काल में, यह अविनाशी योग रहा। १६-१४
मुझसे रवि मनु इक्ष्वाकु को, मिला लोक ने इसे गहा।।१।।
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परंपरा से मिले योग को, जान राज-ऋषि मौन हुए।
बहुत समय से लुप्त हो गया, क्या-कैसा था कौन कहे?।।२।।
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वही पुरातन योग कहा अब, मैंने तुझसे भक्त-सखे!
अति उत्तम अति गूढ़ विषय है, सरस सरल यह भले दिखे।।३।।
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पूछे अर्जुन ''प्रभु! जन्मे हैं, आप आज; रवि पूर्व बहुत।
आदि कल्प में कहा आपने, कैसे जानूँ है यह सत?।।४।।
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भगवन बोले ''मेरे-तेरे, कई जन्म हो पार्थ चुके।
मुझे ज्ञात तू नहीं जानता, इसीलिए यह प्रश्न करे।।५।।
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हूँ अविनाशी भले अजन्मा, सब जीवों का ईश्वर हूँ।
कर आधीन प्रकृति के खुद को, प्रगट योगमाया से हूँ।।६।।
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जब जब धर्म-हानि होती है, और अधर्म बढ़े भारत!
तब तब खुद को रचता हूँ मैं, तुझे सत्य अब हुआ विदित।।७।।
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साधुजनों का कष्टनिवारण, दुष्टों का विनाश करने।
धर्म प्रतिष्ठा करने फिर से, प्रगट हुआ मैं युग-युग में।।८।।
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जन्म-कर्म यह दिव्य-अलौकिक, जो यह तत्व जानता है।
तज तन फिर न जन्म ले अर्जुन!, लीन मुझी में होता है।।९।।
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वीतराग भय क्रोध से रहित, हों अभिन्न जो जन मुझसे।
ज्ञान तपस्या से पावन हो, वे सब लीन हुए मुझमें।।१०।।
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जो जैसा मुझको पाता है, और जिस तरह है भजता।
मैं वैसे अपनाता उसको, जान विज्ञ बरता करता।।११।।
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जो कर्मों से सिद्धि चाहते, वे देवों को पूज रहे।
शीघ्र मिल सके मनुज लोक में, सिद्धि मनुज को कर्मों से।।१२।।
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चारों वर्ण बनाए मैंने, गुण अरु कर्म बाँट कर ही।
उनका कर्ता मैं अविनाशी, मुझको जान अकर्ता ही।।१३।।
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लिप्त न होता कभी कर्म में, नहीं कर्मफल की इच्छा।
जो इस तरह जानता मुझको, नहीं कर्म से वह बँधता।।१४।।
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इसे जानकर कर्म-रती थे, मोक्षाकांक्षी जन पहले।
कर्म करो तुम तदनुसार ज्यों, किए पूर्वजों ने पहले।।१५।।
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क्या है कर्म?, अकर्म कौन सा?, बुद्धिमान मोहित सोचें।
वही कर्म समझाऊँ तुझको, जान अशुभ से तू छूटे।।१६।।
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कर्म स्वरूप जान ले पहले, जान अकर्म रूप भी तू।
जान विकर्म किसे कहते हैं?, गहन कर्म-गति जाने तू।।१७।।
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देख कर्म में जो अकर्म ले, लख अकर्म में कर्म सके।
वह मनुजों में बुद्धिमान है, योगी कर हर कर्म सके।।१८।।
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जिसके कर्म शुरू होते सब, बिन संकल्प कामना के।
ग्यान अग्नि में भस्म कर्म कर, वह पंडित सब ग्यानी में।।१९।।
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तजे कर्म सँग फलासक्ति जो, बिन आश्रय भी तृप्त रहे।
दिखे प्रवृत्त कर्म में लेकिन, किंचित् कुछ भी नहीं करे।।२०।
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आशा तज चित्तात्मा जीते, सारे परिग्रह भोग तजे।
कर्म करे तन विषयक केवल, हो न पाप को प्राप्त सखे।।२१।।
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सहज लाभ से तृप्त रहे जो, द्वंद्व सभी जो भूल सके।
सिद्धि-असिद्धि समान जिसे हो, कर्म करे पर बिना बँधे।।२२।।
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हो आसक्ति नष्ट सब जिसकी, चित्त ग्यान में बसा रहे।
यज्ञ हेतु जो कर्म करे वे, खुद विलीन हों सदा सखे।।२३।।
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अर्पण-अर्पित ब्रह्म ब्रह्म को, ब्रह्म अग्नि में ब्रह्म करे।
हो गंतव्य ब्रह्म ही उसका, ब्रह्म कर्म हो प्राप्त उसे।।२४।।
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पूजन कर देवों का योगी, बाकी उनको उपासते।
ब्रह्म अग्नि में दूजे योगी, हवन ब्रह्म का ही करते।।२५।।
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श्रवणादिक इंद्रिय को योगी, संयमाग्नि में दहन करें।
शब्दादिक विषयों को योगी, इन्द्रियाग्नि में हवन करें।।२६।।
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सभी इन्द्रियों को; कर्मों को, प्राणज सकल क्रियाओं को।
स्व संयम की योग अग्नि में, अर्पित करते ज्ञान दीप को।।२७।।
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द्रव्य-तपस्या-योग यज्ञ भी, कई भक्त अर्पित करते।
स्वाsध्याय-निज ज्ञान यज्ञ को, दृढ़प्रतिज्ञ यति ही करते।।२८।।
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प्राणापान-अपान प्राण में, करते हवन अन्य योगी।
प्राण-अपान रोकदें आहुति, प्राणों की प्राणों में ही।।२९।।
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कुछ आहार नियत ही करते, अर्पित प्राण प्राण में हों।
सभी यज्ञ में पाप नष्ट कर, लेते जान सुयज्ञों को ।।३०।।
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अनुभव करते यज्ञ अमिय का, परमात्मा पाते योगी।
यज्ञ न करते जो उनको सुख, मिले न किसी लोक में भी।।३१।।
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कहे गए हैं यज्ञ बहुत से, वेद-ब्रह्म के वचनों से।
हुए कर्म-उत्पन्न वे सभी, आप मुक्त हो कर्मों से।।३२।।
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द्रव्य यज्ञ से अधिक श्रेष्ठ ही, ज्ञान यज्ञ अरिदण्डक है।
पृथापुत्र हे! सकल कर्म मिल, विलुप्त ज्ञान यज्ञ में है।।३३।।
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कर प्रणाम ले पूछ प्रश्न तू, गुरुओं से सेवा करके।
कर उपदेश ज्ञान देंगे वे, ज्ञान तत्वदर्शी तुझको।।३४।।
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जिसे जानकर फिर न मोह को, कभी प्राप्त अर्जुन! होगा।
तू संपूर्ण शेष भूतों को, खुदमें मुझमें देखेगा।।३५।।
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अगर पाप करता भी है तू, ज्यादा शेष पापियों से।
दिव्य ज्ञान नौका के द्वारा, पाप समुद को पार करे।।३६।।
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जिस प्रकार ईंधन को पावक, पार्थ! राख कर देता है।
ज्ञान अग्नि सारे कर्मों को, उसी प्रकार भस्म करती।।३७।।
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ज्ञान सदृश्य नहीं है कोई, अन्य पवित्र-शुद्ध मानो।
उसे आप ही योग सिद्ध जो, यथासमय पाता जानो।।३८।।
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श्रद्धावान ज्ञान पाता है, इंद्रिय संयम में रत हो।
ज्ञान प्राप्त कर शांति प्राप्त हो, बिना विलंब शीघ्र उसको।।३९।।
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अविवेकी बिन श्रद्धा है जो, कर संदेह नष्ट होता।
न इस लोक में; न परलोक में, सुख संदेही को मिलता।।४०।।
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तजे भक्ति से कर्मफलों को, काट ज्ञान से संशय को।
आत्मवंत कर्मों में किंचित्, बँधता नहीं धनंजय है।।४१।।
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अज्ञानजनित संशय उर में, जो अपने ज्ञानायुध से।
उनको काट योग में स्थिर हो, समर हेतु भारत उठ जा।।४२।।
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