विमर्श : नवगीत में नए रुझान
नवगीत में
१. केवल नकारात्मक भावनाओं का वर्णन उपयुक्त है क्या?
२. जो काव्य विधा हर रस की अभिव्यक्ति न कर सके, वह अपने आप में पूर्ण है क्या?
३. समाज और देश की प्रगति एयर विकास की अनदेखी कर अतिशयोक्तिपूर्ण बिखराव, टकराव और विडंबनाओं का चित्रण समाजद्रोह नहीं है क्या?
४. अगिन नवगीतकारों द्वारा अगणित बार उठाई जा चुकी समस्याओं को फिर-फिर लिखने में नवता कहाँ है?
५. नवगीत में नए रुझान क्या हैं?, क्या हो सकते हैं?
६. आभासी दुनिया में नवगीत का क्या स्थान है?
७. नवगीत और नवगीतकारों के विकास में आभासी दुनिया की क्या भूमिका है?
८. नवगीत समीक्षक और शोधकर्ता आभासी दुनिया में नवगीत की उपस्थिति, प्रभाव और रचनाधर्मिता से कितना परिचित हैं?
९. नवगीत के आरंभ में बताये हुए मानकों और विषयवस्तु से चिपका रहना पारंपरिक नहीं है क्या? इसमें नवता कहाँ है?
१० नवगीत के विकास के लिए उसे तथाकथित लक्षणों से स्वतंत्र किया जाना कितना आवश्यक है?
११. नवगीत के सामाजिक प्रभाव और समाज से जुड़ाव की अभिवृद्धि हेतु आपके सुझाव?
उक्त प्रश्नों पर आपके विचारों का स्वागत है।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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