विमर्श
नवगीत में पंक्ति विभाजन क्यों?
सच्चिदानंद तिवारी 'शलभ'
नव/ पुरा / गीत का गेयता से अन्योन्याश्रित सम्बंध है.
भवभूति ने लय की महत्ता बताते हुए कहा है-
पूजाकोटि समं स्तोत्रम,
स्तोत्र-कोटिसमो जप:
जप-कोटि समं ध्यानं,
ध्यानं-कोटि-समं लय:
कुछ विद्वानों के अनुसार जीवों में जो श्वासोच्छवास की क्रिया होती है,उसी स्वाभाविक एवं प्राकृतिक क्रिया को 'लय' कहते हैं.
योग के अनुसार वाणी की चार स्थितियां होती हैं-
परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी.
संगीत में लय ४ प्रकार की होती हैं-विलंबित,मध्य, द्रुत और अतिद्रुत.
लय एक निर्गुण रूप है.इसको सगुण रूप में समझना तथा समझाना पड़ता है.
संगीत शास्त्र में गायन,वादन तथा नृत्य की क्रिया में नियमित रूप से नियमित संख्या के माध्यम से निश्चित किए गए समय को लय कहते हैं.
अब जो प्रश्न है लय को तोड़ने का (बीच में खाली रहने का) तो इसे इस प्रकार समझिए-
स्वामी विवेकानंद ने 'खाली'
को (शून्य)आकाश की संज्ञा दी.यह आकाश सर्वत्र व्याप्त है, ठीक ऐसे ही जैसे कि ईश्वरीय सत्ता.
गीत/ संगीत भी इससे वंचित (खाली) नहीं है.
अपनी प्रक्रिया को रुचिकर बनाने, गीतकार/कलाकार को थोड़ा विश्राम देने तथा आगे की प्रक्रिया को सोच लेने का अवसर 'खाली' द्वारा दिया जाता है.
अत:जिसे लय तोड़ना कहा जाता है,गीत/संगीत में उसका अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है.
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राकेश कुमार,डालटनगंज, झारखण्ड
डॉ रवींद्र भ्रमर के शब्दों में--
"लोकधर्मी अनुभूतियाँ, लोकगीतों
की अंतरवर्ती लयचेतना, वर्तमान जीवन के द्वंद्व और संघर्ष की रागात्मक कलाभिव्यक्ति, भाषा के मुहावरे और छन्दों की ताजगी,नवजीवन से लिये गये अप्रस्तुत और बिंब-नवगीत को विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।"
प्रश्न यह है कि नवगीतकार अपनी पँक्तियों को तोड़ते क्यों है?
तो ,एक प्रसिद्ध दोहा है
"लीक लीक गाड़ी चले,लीकहि चले कपूत।
लीक छोड़ तीनों चले,शायर सिंह सपूत।।"
सम्भवतः नवगीतकार इन पँक्तियों को चरितार्थ करना चाहते हैं।
छायावाद से प्रगतिवाद तक कविता लिखने के साथ-साथ गीत लिखने की परंपरा भी अबाध रूप से चलती रही।छठे दशक के अंत तक आते-आते कुछ गीतकारों ने "नयी कविता" की तरह "नवगीत" का नारा दिया।सन 1970 के आसपास उभरी नयी जनचेतना का असर कविता के साथ-साथ गीतों पर भी पड़ा।इस दौर में गीतों की विषयवस्तु में भी परिवर्तन हुआ।अब किसानों-मजदूरों और आम आदमी के दुःख और संघर्ष के गीत गाये जाने लगे।गीतों को हर तरह की रोमानियत और परंपराओं से मुक्त कर उनको जीवन के यथार्थ से जोड़ा गया।
" भूमि पर,मन पर,बदन पर
है अमावस का बसेरा
चंद लोहे की छड़ों में
बंद है युग का सवेरा "
.------रमेश रंजक
नवगीतकारों ने अपनी अभिव्यक्ति को नए बिम्ब,प्रतीक,उपमान ,मुहावरे और विषय तो दे दिये परन्तु मेरी दृष्टि में अभी नये विराम चिन्हों का अन्वेषण शेष है।पँक्तियों को तोड़ना उक्त रिक्तता की क्षतिपूर्ति प्रतीत होती है।
राकेश कुमार,डालटनगंज, झारखण्ड
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पंकज परिमल
जो भी व्यक्ति नवगीत लिख रहा है, उसे प्रथमत: तो यह स्पष्ट होना चाहिए छंद के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता। इसलिए यह प्रयोजन तो गले उतरने वाला नहीं कि छन्द का पता न लगे, इसलिए पंक्तियों को तोड़ा जाता है। इसके एकाधिक कारण हो सकते हैं। एक कारण तो है भाव की स्पष्टता, जिस कारण से नवगीत की पंक्तियों को तोड़ना कई बार आवश्यक हो जाता है। दूसरा कारण हास्यास्पद कहा जा सकता है। प्रेस की लाइन में एक मुहावरा प्रचलित है 'किताब को पानी पिलाना'। अतः कई बार पृष्ठों की संख्या बढ़ाने के लिए और पंक्तियों की संख्या बढ़ाने के लिए अविवेकपूर्ण ढंग से पंक्तियों को तोड़ा जाता है।अविवेकपूर्ण ढंग में एक बात यह भी शामिल है कि कारक के पूर्व पंक्ति को तोड़ दिया जाता है; जैसे में, के, पर आदि के पहले। यह व्याकरणसम्मत नहीं है। अस्तु, कई बार अर्थ को स्पष्ट करने के लिए तो कई बार यति का विधान स्पष्ट करने के लिए पंक्तियों को तोड़ने की परंपरा चल पड़ी है। मुझे लगता है कि कभी यह ज़रूरी होता है और कभी नहीं। इस बारे में एक राय नहीं बनाई जा सकती।
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राजा अवस्थी
नवगीत की पंक्ति तोड़कर लिखना नवगीत का कोई मानक नहीं है, किन्तु नवगीत को अर्थखण्ड में लिखने के लिए इस तरह का प्रयोग शुरू किया गया। आगे की बार और कई रचनाकारों ने देखादेखी भी इस तरह के प्रयोग किए, जो न तो अर्थ खण्ड में थे और न ही लय खण्ड में, यहीं गड़बड़ी हुई, किन्तु हम इसे मानक नहीं मान सकते। जहाँ लय खण्ड में ही अर्थ भी पूर्ण हो रहा हो, वहाँ नवगीत की पंक्तियाँ तोड़ने की न तो जरूरत है और न ही चलन। डाॅ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ही नहीं और भी कई नवगीत कवियों के यहाँ हम ऐसा ही देखते हैं। डॉ पंकज परिमल जी के यहाँ भी ऐसा ही है। नाम की हैं, दो - चार नाम लेना उचित नहीं होगा।
तात्पर्य यह कि नवगीत कविता में पंक्तियाँ तोड़ना निष्प्रयोजन नहीं है, किन्तु यह अतिरिक्त सावधानी की माँग करता है। अच्छा रचनाकर अपना शिल्प इस तरह रखता है, कि अर्थ खण्ड और लय खण्ड अलग-अलग नहीं होते, किन्तु यह साधना सरल नहीं है इसलिए जरूरत पड़ने पर किया भी जा सकता है, पर सावधानी से।
मुझे तो ऐसा ही समझ में आया। अब कोई केवल प्रयोग के लिए प्रयोग करे, तो हम उसे मानक नहीं मान सकते। एक बात यह भी कि हमें अच्छी रचनाओं को आधार बनाकर बात करनी चाहिए।
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डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'
सभी मित्रों के विचारों का स्वागत करके अपनी बात कहता हूँ ।नई कविता के नाम पर जिस छंदमुक्त उबाऊ गद्य कविता का प्रारम्भ जिन निराला का नाम लेकर किया गया उन्होंने 'मुक्त छंद 'की बात की थी , छंदमुक्ति की नही ।अब गद्य में लय तो होती नहीं ।इसलिए नई कविता के पुरोधाओं ने 'अर्थ लय'की कल्पना प्रस्तुत कर दी।यह पारम्परिक भारतीय काव्य को शीर्षासन कराने जैसी स्थिति थी ।यह नया काव्य लोगों को पच नहीं रहा था ,उधर कविसम्मेलन मंच पर गीत की लोकप्रियता शीर्ष पर थी इसलिए सबसे पहले नई कवितावादियों ने गीत को हेय , लिजलिजी भावुकता से सम्पन्न , खुरदरे यथार्थ को प्रकट करने में अक्षम आदि कहना प्रारम्भ किया।बुद्धिजीवी वर्ग में उन्होंने अपनी पैठ बना ली।इसलिए नवगीतकारों को भी अपनी स्वीकृति की चिंता सताने लगी ।अतः उन्होंने सनातन से लयखण्ड में लिखे जाते गीत को अर्थखण्ड में लिखना प्रारम्भ किया । इससे छंद की एक पंक्ति 2 या 3 पंक्तियों में बंट गयी परन्तु इससे छंद समाप्त थोड़े ही हुआ ।एक उदाहरण लें-
"बापू छीलें घास
देखकर बेटा हँसता है
वो क्या जाने
मुखिया की कब कौन
विवशता है
गिटपिट सीख गया
दो अक्षर
करता है मनमानी
उतर गया उसकी आँखों से
मर्यादा का पानी
उसके सपनों में
केवल अमरीका बसता है। मधुकर अष्ठाना
अर्थखण्ड की माँग के कारण ये गीतांश 12 पंक्तियों में लिखा गया है।परन्तु इसे जरा लयखण्ड में इस तरह लिखें -
बापू छीलें घास/देखकर बेटा हँसता है
वो क्या जाने/मुखिया की कब कौन /विवशता है
गिटपिट सीख गया /दो अक्षर/करता है मनमानी
उतर गया उसकी आँखों से /मर्यादा का पानी
उसके सपनों में /केवल अमरीका बसता है
अब पहली 2 (अर्थ खण्ड में 5) पंक्तियाँ गीत का मुखड़ा हैं जो 26 मात्रा के महाभागवत जाति के विष्णुपद छंद में निबद्ध हैं।अंतिम पंक्ति(अर्थखण्ड में लिखी 2)भी इसी छंद में है। यहाँ लय विष्णुपद के समान है यद्यपि कवि ने यती विधान में छूट ले ली है।
मध्य की 2 (अर्थ खण्ड में 5 पंक्तियाँ) गीत का एक अंतरा है ये 28 मात्रा के यौगिक जाती के सार या ललित छंद में है जिसे मराठी में साकी भी कहाजाता है
नवगीतकारों के लिए गीत को अर्थ खण्ड में लिखना अनिवार्य था क्यों कि उसीके द्वारा वे यह प्रमाणित कर पा रहे थे कि हमारे लिए जितनी आवश्यक लय है उतना ही आवश्यक बल्कि उससे अधिक आवश्यक अर्थ है। हम केवल गवैया नहीं समर्थ युगबोध सम्पन्न कवि हैंपरन्तु वे छंद और लय के साथ सामंजस्य बनाकर चलें ।कुछ लोग जो अज्ञान वश यह कहते मानते हैं कि नवगीत में लय चाहिए छंद की आवश्यकता नहीं , वे अपनी अक्षमता छिपाते हैं।
सक्षम और समर्थ नवगीतकारों ने छंद के क्षेत्र में असंख्य प्रयोग किये हैं ।वे छंद में नयापन लाने के लिए हैं ।मैंने बहुत विस्तार से इन प्रयोगों पर अपने तीनों ग्रंथो 1 समकालीन गीतिकाव्य:संवेदना और शिल्प 2 नवगीत:नए सन्दर्भ और3 नवगीत कोष में तो लिखा ही है अनेक बार पत्रिकाओं में भी लिखा है।अर्थ की गरिमा को बचाने और लय के साथ तालमेल बिठाने को पंक्तियाँ तोड़ना नवगीतकारों की जरूरत है , शौक या अनभिज्ञता नहीं।
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प्रभात पथिक भोपाल
नवगीत में किसी नए छन्द य्या यतिबन्ध का प्रयोग या खोज उसकी एक उपलब्धि मानी जाती है। इसलिये आपने देखा होगा कि कई नवगीतकार एक ही चरण को कई चरण में बदलने में लगे रहते हैं। कई बार यह मुझे भी अटपटा लगता है कि एक ही पंक्ति में लिखने में क्या दिक्कत है जब तक यति य्या चरण न समाप्त हो
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प्रदीप पुष्पेंद्र
नवगीत में छंद का न होना बेमानी होगा। पंक्तियां तोड़कर लिखें या नहीं, उससे उसके भाव पर कोई बाधा नहीं होती । उसकी ध्रुव पंक्तियों में सरल सहज.प्रवाह होना चाहिये। बात को कहने के लिए बिम्ब प्रतीक योजना में नव्यता का प्रयास हो।
कहावतों मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग और सांस्कृतिक बोध बना रहे तो उत्तम । लय में अवरोध न हो, नवगीत गेय हो यही गीतकार की कुशलता है।
हम नयी कविता की ओर जिनसे बचना चाहिए। आज जो नवगीत है, हो सकता है कि दो तीन दशक के बाद व पारम्परिक गीत में गिना जाए।
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सुशीला जोशी
नवगीत में पँक्ति को तोड़ कर लिखने का मुख्य कारण नवगीत के शिल्प में भी नव्यता ला कर नवगीतकार कहलाना भी है ।
आज का युग शिल्प प्रधान युग है । मात्राओ की गणना को स्पष्ट करना भी एक लक्ष्य है ।
फिल्मी गीत अधिकतर अगीत के अधिक निकट हैं जो नवगीत की ही भांति तुकांत पँक्ति में ही गीत है । नवगीत पर उनका प्रभाव भी परिलक्षित दिखाई देता है जिसे गीतकार अपनी समझ से उसे गीत बनाने में जुटे हैं
आजकल छंद लेखन का चलन भी बढ़ चला है लेकिन दूसरों के विधान पर अपने शब्द सजा कर अपनी मौलिक रचना कहना क्या उचित है ?
नवगीत में नव्यता उसके बिम्बो के उपयोग व उसकी टटकी भाषा से बनती है न कि किसी पूर्व नियोजित विधान पर शब्द सजा कर ।
गीतों की श्रेणी में लोकगीत भी है जिनमे कथ्य सपाट व साधारण रहता था लेकिन नवगीत जनचेतना में क्रांति की रचना है जिसमें उन बिम्बो का उपयोग है जिनकी किसी को कल्पना भी नही । शायद इसी कौशल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए पँक्ति को तोड़ कर लिखने का सिलसिला शुरू हुआ ।
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कुमार आदेश चौधरी 'मौन'
आदरणीय सादर प्रणाम !
मुझे लगता है कि नवगीत में पंक्ति को तोड़कर लिखने के कुछ कारण निम्नलिखित हो सकते हैं-
जैसे-
1- यति की स्पस्टता के लिए
2- भाव की स्पष्टता के लिए
3- लय की स्पष्टता के लिए
4- गीत को पत्र पत्रिकाओ के स्तम्भ आदि में ढालने के लिए...
5- एक नव गीत और पारम्परिक गीत मे अन्तर करने के लिए...
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डॉ.सुषमागुप्ता[महाराष्ट्]
मेरे विचार से अधिकांश नवगीतकार पंक्तियां तोड़कर लिखते हैं परंतु सब नहीं, कुछ 1 पंक्ति मे भी लिखते हैं और कुछ तोड़कर।
कदाचित तोड़कर लिखने के पीछे एक पंक्ति में सारी सृष्टि समाहित करने की पराकाष्ठा का भाव हो सकता है जैसे-धरती, आकाश, ईश्वर एवं सम्पूर्ण सृष्टि का सामंजस्य भाव अथवा विनाश का समन्वय।
उदाहरणार्थः कभी कवि कह सकता है- सागर के सीने पर चलता है, लहरों सा बहता है, कभी अंबर से धरा पर बरसता है, वो पानी नहीं वो मेरा हृदय है। पर जब वो होता है खुशियों भरा तो उसका टूटा हुआ हर शब्द फूल सरीखा खिलता है, जब क्रोध में होता है तो शब्दों से अंगारे निकलते हैं, खुशियों में झरने निर्झर बहते हैं।
और उन टूटी पंक्तियों की गहराई कविता का अंत होते-होते भाव-दर्शन में सक्षम अर्थात कह सकतें हैं, वह सफल रही, तो यही तो है,
'नव कविता" जो विना लय, छंद व ताल के भी निर्वाध गति से बहती है स्वछंद आनन्द सी..
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आनंदी नौटियाल
मुझे ऐसा लगता है कि गीतकार अपने कुछ विशेष कथन कहने के अभिप्राय से कुछ गूढ़ार्थ रहस्य समझाने हेतु ऐसा करते हों,
नवगीतों में विशेषतः प्रकृति का मानवीकरण किया जाता है, छंद वाली बाध्यतायें नहीं रहती है , तुकान्त की जगह लयात्मकता दिखती है, अतः रचनाकार स्वछंद है, बंधन में नहीं,
पर शायद अब कुछ फैशन भी बनता जा रहा है , पंक्तियाँ आधी लिखकर छोड़ देने का,
जो एक उत्तम रचनाकार को नहीं करना चाहिए।
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साभार- नवगीत लोक
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