ग़ज़ल
लबादा पैसों का जबसे ओढ़ा है
हर भावों को पैसों से तोला है.
ये भी सच है एक हद तक
इसी पैसे ने हमको तुमसे जोड़ा है.
लेकिन ये भी सच है, पैसे ने
तुम तक पहुंचने में डाला रोड़ा है.
कितना बचेगा तू पैसों के कफ़स' से
बड़े - बड़ों का ईमान इससे डोला है.
न भरने वाला है ये जख्म
अमीरी ग़रीबी के तन में फोड़ा'' है.
सच्चाई की जुबां भी बदली है
गवाही का मुंह इसने मोड़ा है.
न रखना जेब में अधिक जगह "प्रताप"
रिश्तों को भरी जेबों ने तोडा है.
'-- कैद.
''-- घाव.
प्रबल प्रताप सिंह
लखनऊ ब्लागर्स एसोसिएशन के गठन पर सभी सदस्यों को बधाई...
जय हिंद...
बहुत उम्दा!!
अच्छा लगा सबको एकजुट देख.
comment ke lie Uhushdeep ji or Udan ji bahut - bahut dhanyvaad...!!