पुस्तक समीक्षा
पुस्तक --सृष्टि ( ईशत इच्छा या बिगबेंग , एक अनुत्तरित उत्तर -अगीत विधा महाकाव्य )
रचयिता --डा श्याम गुप्त, समीक्षक--विनोद चन्द्र पण्डे 'विनोद'।
प्रकाशक--अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ ,
काव्य की विविध विधाओं में अगीत विधा ने निरंतर प्रगति करते हुए अपना एक उल्लेखनीय स्थान बना लिया है |प्रसन्नता की बात है कि स्फुट अगीत सृजन के साथ ही अब अगीत खंड काव्य व महाकाव्यों का प्रणयन भी प्रारम्भ होगया है |इस प्रकार विविधता, व्यापकता व गहनता की दृष्टि से भी अगीत विधा की चर्चा होती है | अगीत के समर्थक व आलोचक दोनों किसी न किसी रूप में इसका उल्लेख अपनी कृतियों में करने लगे हैं | इसे यदि इसके प्रवर्तक और दिशावाहक सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा। रंग नाथ मिश्र 'सत्य' की सतत साधना की सफलता माना जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी |उन्होंने स्वयं तो अनेक अगीत लिखे ही हैं अनेक कवियों को अगीत रचना के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया है| इसप्रकार अगीत कारों का एक विशाल परिवार निर्मित होगया है जिसमें नित नए सदस्य सम्मिलित होते जारहे हैं | गीत अथवा अगीत किसी भी माध्यम से हिन्दी की सेवा करने वाले , उसकी समृद्धि में अपना योगदान देने वाले सभी साहित्यकार अभिनंदनीय हैं |
अगीत में सर्वप्रथम प्रबंध काव्यों की रचना वरिष्ठ सुयोग्य अधिवक्ता श्री जगत नारायण पाण्डेय ने की | उनके अगीत खंडकाव्य ' मोह और पश्चाताप' तथा अगीत महाकाव्य ' सौमित्र गुणाकर' प्रकाशित होकर सुधी समीक्षकों और प्रबुद्ध पाठकों की सराहना प्राप्त कर चुके हैं |
इसी श्रंखला में सुप्रसिद्ध चिकित्सक और उत्साही कवि डा श्याम गुप्त द्वारा लिखित अगीत महाकाव्य 'सृष्टि '
एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में स्वागत योग्य है |यह अगीत विधा में ब्रह्माण्ड की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति के वैदिक, दार्शनिक व अधुना वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक काव्य है | इसे एकादश सर्गों में विभक्त किया गया है , यथा--वन्दना, उपसर्ग, सद-नासद खंड, संकल्प खंड, अशांति खंड, ब्रह्माण्ड खंड, ब्रह्मा प्रादुर्भाव एवं स्मरण खंड, सृष्टि खंड, प्रजा खंड , माहेश्वरी प्रजा खंड एवं उपसंहार ---काव्य शास्त्रियों ने महाकाव्य के लिए आठ या आठ से अधिक सर्गका नियम निर्धारित किया है,यह महाकाव्य इस लक्षण की पूर्ती करता है |
महाकाव्य में मंगलाचरण का विधान भी आवश्यक मानाजाता है | डा श्याम गुप्त ने इस नियम का पालन करते हुए प्रथम सर्ग को वन्दना की संज्ञा दी है और गणेश, सरस्वती, शास्त्रादिक, ईश्वर सत्ता ईशत इच्छा, अपरा माया,चिदाकाश, विष्णु, शम्भू महेश्वर, ब्रह्मा एवं दुष्टजन वन्दना अगीत में की है |सरस्वती वन्दना का स्वरुप प्रस्तुत है --- "
" वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ, ब्रह्मा को हुआ स्मरण;
वही ज्ञान स्वर हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर ||"
कृति के कथानक और उद्देश्य के सम्बन्ध में रचनाकार ने आत्मकथ्य में अपने विचार इस प्रकार अभिव्यक्त किये हैं--"सृष्टि की उत्पत्ति व मानव जीवन के रहस्य जानने की मानव मन में सदैव ही उत्कंठा रही है |...इस उद्देश्य यात्रा में मानव की क्रमिक उन्नति व दर्शन विज्ञान आदि के आविर्भाव की गाथा है |आज का आधुनिक विज्ञान हो या पुरा वैदिक दर्शन इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजना ही उसका चरम लक्ष्य है |आधुनिक विज्ञान व पुरा वैदिक दर्शन इस इस विषय पर कहाँ तक पहुँच पाए हैं एवं व्यक्ति व समष्टि के लिए इस ज्ञान की क्या महत्ता व आवश्यकता है इन्हीं का निरूपण इस कृति का उद्देश्य है |"
इसमें कोई संदेह नहीं कि एक वृहद् उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए 'सृष्टि' महाकाव्य का सृजन किया गया है | कवि को अपने सत्प्रयास में पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई है | उसने मनुष्य को ईश्वर के अंश के रूप में चित्रित कर भारतीय दर्शन की अवधारणा की पुष्टि की है | एक छंद उद्धरणीय है---
" क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें , शत्रु-मित्र में ,
ब्रह्म समाया कण कण में वह |
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फिर क्या अपना और पराया |"
कविवर श्याम गुप्त की वर्णन कुशलता श्लाघनीय है | उन्होंने जड़-चेतन , पुरुष-प्रकृति- ईश्वर, मानव- सृष्टि, संसार व मनुज के क्रमिक विकास और वातावरण का चित्रण कुशलता पूर्वक बोधगम्य शैली में किया है , एक छंद दृष्टव्य है--
"वायु, अग्नि, मन और जल बने ,
सब ऊर्जाएं बनीं अग्नि से;
जल से सब जड़ तत्व बन गए |
मन से स्वत्व औ भाव अहं सब ,
बुद्धि, वृत्ति और तन्मात्राएँ ;
सभी इन्द्रियाँ बनी स्वत्व से ||"
वस्तुतः सृष्टि महाकाव्य में आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सुन्दर प्रस्तुतीकरण हुआ है| ईश्वर के प्रति अनन्य आस्था व्यक्त करते हुए विज्ञान वेत्ता चिकित्सक डा गुप्त ने अपने भाव कृति के अंतिम छंद में इस प्रकार प्रकट किये हैं--
"पर ईश्वर है जगत नियंता,
कोई है अपने ऊपर भी;
रहे तिरोहित अहं भाव सब|
सत्व गुणों से युत हो मानव ,
सत्यम शिवं भाव अपनाता;
सारा जग सुन्दर होजाता ||"
सृष्टि महाकाव्य का भाव पक्ष अत्यंत सबल, पुष्ट एवं समृद्ध है| विचारों की गहनता ,व्यापकता एवं गंभीरता सर्वथा सराहनीय है| विषयानुसार कवि ने शुद्ध ,परिष्कृत,प्रांजल, परिमार्जित एवं संस्कृत निष्ठ भाषा का प्रयोग कर अपने हिन्दी भाषा ज्ञान का सम्यक परिचय दिया है |कृति में अभिधा, लक्षणा, व्यंजना शैली का उपयोग अगीत विधा में पाठकों को अपनी और आकृष्ट करता है| महाकाव्य अतुकांत षट्पदी में निबद्ध है | लय और प्रवाह की उपस्थिति का रचनाकार ने यथाशक्ति प्रयास किया है| यत्र-तत्र अलंकारों की छटा भी अवलोकनीय है | विशेष रूप से अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है|
अतः अगीत विधा में रचित 'सृष्टि' महाकाव्य भाव ,भाषा, शैली, रस, अलंकार, छंद आदि की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कृति है| पद्मश्री बचनेश त्रिपाठी , डा रामाश्रय सविता, डा रंग नाथ मिश्र'सत्य' , जगत नारायण पाण्डेय ने रचना के आशंसा की है आशा है कि कविता प्रेमी पाठक और सुधी समीक्षक 'सृष्टि ' महाकाव्य की सराहना करेंगे |
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