उत्तर प्रदेश के भदोही जनपद के एक गाव पिपरिस में मैं १९६९ में पैदा हुआ, वही पला बढ़ा, गाव के ही प्राथमिक विद्यालय में मेरा तथा मेरे तीन भाइयों का नाम लिखाया गया था, मुझे याद नहीं है की कभी हमारे बाबूजी ने हमें गोद में लेकर दुलार किया था, पूरे सप्ताह हम लोग बड़े सहमकर रहा करते थे, रविवार को हम लोंगो का दिन क़यामत का दिन होता था जी हा क़यामत का, क्योंकि उस दिन सुबह ही हम लोंगो की क्लास लगती थी बारी बारी से गिनती पहाडा आदि पूछे जाते थे और तब तक जब तक हमसे गलतिया न हो जाय, बस एक गलती और पिटाई का दौर .
शायद उसी का परिणाम हैकि आज भी पिताजी से डर लगता है, हिम्मत नहीं पड़ती की उनके सामने कभी ऊँची आवाज़ में बात कर ले, बाहर रहकर भी उनके प्रति यह डर बना रहता है की कोई शिकायत उनके कानो तक न पहुंचे और हमें डांट सुननी पड़े,
उस समय गाव में पिता को पिताजी कहना भी बहुत बड़ी बात थी, बाबु जी कहते थे हम, आज हम कितने धडल्ले से कह देते यह मेरा बेटा-बेटी है, स्कुल में दाखिला भी बाबूजी करने नहीं जाते थे शायद गाव के परिवेश में अपने बड़े बुजुर्गो के सामने अपने बेटे को लेकर घूमना भी जोखिम भरा काम था. अपनी किताब "नंगातलाई का गाव " में गुरूजी विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने पिता का जिक्र किया है, उस दौर के पिता के मिसाल थे वह, उन्होंने शायद ही कभी विश्वनाथ को अपने बिस्तर पर सुलाया हो, शायद ही कभी प्यार किया हो, कभी दुलराया हो, अपनी थाली में खाना खिलाया हो, कभी तारीफ की हो, शाबाशी दी हो, हा कभी कभी इतना जरुर कहते " पढ़ही लिखिही नाही ता भीख मंगिही ससुरे" बिलकुल वैसे ही है हमारे पिताजी.
वह जमाना पिता के तौर पर सर्वशक्तिमान किस्म के पिता का जमाना था, कम से कम अपने परिवार में तो था ही, उस समय पिताजी बोलते कम थे, हा आदेश ज्यादा देते थे. सारी बाते माँ से ही की जाती थी, अपने बच्चो से सहज होने की बात पिता कभी सोच ही नहीं पाते थे.
आज का पिता अब पापा बन चुका है, पापा अपने बच्चो से बहुत ही सहज है, वह अपने बच्चो के साथ हँसता है, खेलता है, बात करता है, उनकी बातो को गंभीरता से लेता है,उनकी पढाई रहन सहन, समय से तैयार होना , स्कूल पहुँचाना , बच्चो की एक-एक बातो का ख्याल रखना पिता के दिनचर्या में शुमार है, पिता ने शायद पहली बार इतिहास में बच्चो के साथ बच्चा बनकर जीना सीखा है. पिता बनकर वह बच्चो के पास नहीं जाता. वह तो बच्चा बनकर उनके साथ जीता है, इसीलिए वह उनके साथ खेल सकता है, दौड़ सकता है, गप्प लड़ा सकता है, टहल कर आ सकता है, दौड़ सकता है, आदि-आदि.
आज के अच्छे पिता का मतलब नहीं हैकि वह अपना पूरा समय अपने परिवार को देता है बल्कि तब के पिता से अधिक व्यस्त है, उसकी अपनी प्रोफेशनल जिन्दगी भी है, किन्तु दोनों में तालमेल बिठाकर प्राथमिकता अपने परिवार को देता है, सही बात तो यह हैकि आज का पिता "कभी-कभी" के शशि कपूर की तरह है जो बेटे का अफेयर को देखकर झूम उठता है और कहता है.... हा.हा..हा. मेरे बेटे को प्यार हो गया हा....हा....हा.....आज का पिता अपने बेटे को वह सब देना चाहता है जो उसे अपने बचपन में नहीं मिल पाया...
सबसे महत्वपूर्ण बात बात यह है की सबकुछ देने के बाद भी शायद वह संस्कार नहीं दे पा रहा है, बल्कि उसे एकदम व्यवसायिक बना रहा है, वास्तव में तब के पिता से आज का पापा अच्छा है. किन्तु संस्कार, अनुशाशन भी आवश्यक है जो शायद नहीं दे पा रह है, हमारा भी बड़ा बेटा बीसीए कर रहा है, हम भी अपेक्षा करते है पढ़ लिखकर वह नाम कमाए किन्तु हमारे संस्कारो को न भूले, हमारी संस्कृति को न भूले.

आइये हम सभी पापा आज फादर्स डे पर एक प्रण अवश्य ले की अपने बच्चो को दोस्त बनाकर रखे किन्तु इतनी छुट न दे कि वह हमारी संस्कृति, हमारे संस्कारो को भूल जाये, आधुकनिकता की दौड़ में उसे इतना आगे न कर दे की कल हमें पछताना पड़े.
bilkul sahi baat kahi.
सन्स्कारो को जीवित रखना होगा। बढिया लेख।
great !!!
Samaj buraiyo se bachane ke liye apane bachcho ko ek siniar dost ki tarah rakhana hi akalmandi hai, maine lekh padha achchha laga .
good,