
डा श्याम गुप्त की कविता....निडर----
निडर ...
उस रात जब लाइब्रेरी के पास
मैंने कहाथा-
" क्या तुम्हें डर नहीं लगता ,
क्या तुम्हें होस्टल छोड़ दूं । "
"डर की क्या बात है , हाँ -
यदि तुम बार बार यही कहते रहे
तो मुझे डर है कि -
कहीं मैं डरने न लगूं। "-
तुमने कहा था।
मैं चाहता ही रहा कि
शायद तुम कभी डरने लगो-
रात की गहराई से ,
या रास्ते की तनहाई से ।
पर, तुम तो निडर ही रहीं ,
निष्ठुरता की तह तक निर्भीक ,
कि मैं स्वयं ही डर गया था
तुम्हारी इस निडरता से।
और अभी तक डरता हूँ मैं ,कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी कि नहीं ;
और होगी तो -
मैं क्या कहूंगा, क्या पूछूंगा !
शायद यही कि-
क्या तुम अभी तक वैसी ही हो,
निडर ,निर्भीक ?
और इसी बात से मैं डरता हूँ
अभी तक ॥
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उस रात जब लाइब्रेरी के पास
मैंने कहाथा-
" क्या तुम्हें डर नहीं लगता ,
क्या तुम्हें होस्टल छोड़ दूं । "
"डर की क्या बात है , हाँ -
यदि तुम बार बार यही कहते रहे
तो मुझे डर है कि -
कहीं मैं डरने न लगूं। "-
तुमने कहा था।
मैं चाहता ही रहा कि
शायद तुम कभी डरने लगो-
रात की गहराई से ,
या रास्ते की तनहाई से ।
पर, तुम तो निडर ही रहीं ,
निष्ठुरता की तह तक निर्भीक ,
कि मैं स्वयं ही डर गया था
तुम्हारी इस निडरता से।
और अभी तक डरता हूँ मैं ,कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी कि नहीं ;
और होगी तो -
मैं क्या कहूंगा, क्या पूछूंगा !
शायद यही कि-
क्या तुम अभी तक वैसी ही हो,
निडर ,निर्भीक ?
और इसी बात से मैं डरता हूँ
अभी तक ॥