
डा श्याम गुप्त की कविता....सांचा ज्ञान सदा शिव सोई....
जब जब यह मन में आता है,
सोच सोच मन घबराता है।
क्यों प्रभु से, क्यों सत्कर्मों से,
दूर, मनुज होता जाता है॥
क्यों मंदिर सूने- सूने हैं,
चर्च के घंटे का स्वर मद्धिम ।
मस्जिद की अज़ान भी तो अब ,
नहीं सुनाई देती ऊंची॥
चींटी के बिल डालते आटा,
मिलता नहीं राह में कोई ।
डाल रहीं चिड़ियों को दाना,
छत आँगन में नारि न कोई॥
कागा को भी भाग बलि का ,
कहाँ कौन अब देने जाता।
और गाय की रोटी भी अब,
बनती है नित कहाँ घरों में॥
जीवन ज्ञान शास्त्र की बातें,
चौराहों पर, चौपालों पर ।
कौन कहाँ सुनता है, सुनाता,
रामायण अब कहाँ घरों में॥
अब अज़ान, दुर्गा पूजा भी,
लाउड -स्पीकर से होती।
क्यों आचरण -ज्ञान की बातें,
शास्त्र-पुराणों में ही सोतीं ॥
चिंता करें कमीज़-कोट की ,
नहीं उसमें स्थित मानव की।
कैसे सुख पायें ,चाहे हो-
पेंट ब्रांडेड सौ डालर की॥
खाना, सोना, मैथुन, रक्षा ,
तक सीमित है ज्ञान आज का ।
यह सब तो पशु भी कर लेते,
चैन से,सुख से वे जी लेते॥
चिंता करें सदा देही की,
छोड़ के चिंता, स्व-अंतर की।
कैसे हम सच्चा सुख पायें,
कैसे हो उन्नति मानव की ?
मुहिम चाँद पर जाने की हो,
या ऊंचे महलों में सोये।
जो मन में प्रभु ज्ञान नहीं है,
भला चैन से कब सो पाते॥
ज्ञान फूल पत्ती पेड़ों का,
पोथे पर पोथे लिख डाले।
क्या उसका उपयोग है भला,
पुष्प सदा ही मन महकाते॥
सभी ज्ञान शासन देता है,
स्कूलों में कालेजों में।
धर्म ज्ञान, कब- कौन पढाता,
जीवन क्या है, जीवन क्यों है॥
मानव जीवन होता ही है,
समझें प्रभु की, जग की महत्ता।
यही भूल जाते हैं हम सब,
और हमारी शासन सत्ता॥
इस कलियुग में ज्ञान है सीमित,
पर इच्छाएं यथा असीमित।
इसीलिये इस महाज्ञान को ,
लोग नहीं प्रश्रय दे पाते॥
ज्ञान जो ईश्वर का तू पाले,
मिले अमित भण्डार ज्ञान का।
कारण-मूल को जानले रे नर!
कार्य ज्ञान सबही मिलजाते॥
अतुल ज्ञान भण्डार, शून्य है,
जो प्रभु भाव नहीं है मन में ।
ज्ञान शतगुना सदगुण बंनता,
प्रभु का रखें स्मरण मन में॥
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सोच सोच मन घबराता है।
क्यों प्रभु से, क्यों सत्कर्मों से,
दूर, मनुज होता जाता है॥
क्यों मंदिर सूने- सूने हैं,
चर्च के घंटे का स्वर मद्धिम ।
मस्जिद की अज़ान भी तो अब ,
नहीं सुनाई देती ऊंची॥
चींटी के बिल डालते आटा,
मिलता नहीं राह में कोई ।
डाल रहीं चिड़ियों को दाना,
छत आँगन में नारि न कोई॥
कागा को भी भाग बलि का ,
कहाँ कौन अब देने जाता।
और गाय की रोटी भी अब,
बनती है नित कहाँ घरों में॥
जीवन ज्ञान शास्त्र की बातें,
चौराहों पर, चौपालों पर ।
कौन कहाँ सुनता है, सुनाता,
रामायण अब कहाँ घरों में॥
अब अज़ान, दुर्गा पूजा भी,
लाउड -स्पीकर से होती।
क्यों आचरण -ज्ञान की बातें,
शास्त्र-पुराणों में ही सोतीं ॥
चिंता करें कमीज़-कोट की ,
नहीं उसमें स्थित मानव की।
कैसे सुख पायें ,चाहे हो-
पेंट ब्रांडेड सौ डालर की॥
खाना, सोना, मैथुन, रक्षा ,
तक सीमित है ज्ञान आज का ।
यह सब तो पशु भी कर लेते,
चैन से,सुख से वे जी लेते॥
चिंता करें सदा देही की,
छोड़ के चिंता, स्व-अंतर की।
कैसे हम सच्चा सुख पायें,
कैसे हो उन्नति मानव की ?
मुहिम चाँद पर जाने की हो,
या ऊंचे महलों में सोये।
जो मन में प्रभु ज्ञान नहीं है,
भला चैन से कब सो पाते॥
ज्ञान फूल पत्ती पेड़ों का,
पोथे पर पोथे लिख डाले।
क्या उसका उपयोग है भला,
पुष्प सदा ही मन महकाते॥
सभी ज्ञान शासन देता है,
स्कूलों में कालेजों में।
धर्म ज्ञान, कब- कौन पढाता,
जीवन क्या है, जीवन क्यों है॥
मानव जीवन होता ही है,
समझें प्रभु की, जग की महत्ता।
यही भूल जाते हैं हम सब,
और हमारी शासन सत्ता॥
इस कलियुग में ज्ञान है सीमित,
पर इच्छाएं यथा असीमित।
इसीलिये इस महाज्ञान को ,
लोग नहीं प्रश्रय दे पाते॥
ज्ञान जो ईश्वर का तू पाले,
मिले अमित भण्डार ज्ञान का।
कारण-मूल को जानले रे नर!
कार्य ज्ञान सबही मिलजाते॥
अतुल ज्ञान भण्डार, शून्य है,
जो प्रभु भाव नहीं है मन में ।
ज्ञान शतगुना सदगुण बंनता,
प्रभु का रखें स्मरण मन में॥