
गीतों भरी शाम..डॉ श्याम गुप्त के दो गीत ...
(१) मेरे गीत सुरीले क्यों हैं...
मेरे गीतों में आकर के तुम क्या बसे,
गीत का स्वर मधुर माधुरी होगया।
अक्षर अक्षर सरस आम्रमंजरि हुआ,
शब्द मधु की भरी गागरी होगया।
तुम जो ख्यालों में आकर समाने लगे,
गीत मेरे कमल दल से खिलने लगे।
मन के भावों में तुमने जो नर्तन किया,
गीत ब्रज की भगति- बावरी होगया। ...मेरे गीतों में ..... ॥
प्रेम की भक्ति सरिता में होके मगन,
मेरे मन की गली तुम समाने लगे।
पन्ना पन्ना सजा प्रेम रसधार में,
गीत पावन हो मीरा का पद होगया।
भाव चितवन के मन की पहेली बने,
गीत कबीरा का निर्गुण सबद होगया।
तुमने छंदों में सज कर सराहा इन्हें ,
मधुपुरी की चतुर नागरी होगया। .....मेरे गीतों में..... ॥
मस्त में तो यूहीं गीत गाता रहा,
तुम सजाते रहे,मुस्कुराते रहे।
गीत इठलाके तुम को बुलाने लगे,
मन लजीली कुसुम वल्लरी होगया।
तुम जो हंस हंस के मुझको बुलाते रहे,
दूर से छलना बन कर लुभाते रहे।
भाव भंवरा बने, गुनगुनाने लगे ,
गीत कालिका -नवल-पांखुरी होगया। .....मेरे गीतों में... ॥
तुम ने कलियों से जब लीं चुरा शोखियाँ ,
बनके गज़रा कली खिलखिलाती रही।
पुष्प चुनकर जो आँचल में भरने चले ,
गीत पल्लव सुमन आंजुरी होगया ।
तेरे स्वर की मधु माधुरी मिल गयी,
गीत राधा की प्रिय बांसुरी होगया ।
भक्ति के भाव में तुमने अर्चन किया,
गीत कान्हा की प्रिय सांवरी होगया । .... मेरे गीतों में.... ॥
(२) सुर में सजो तो गीत गाऊँ ....
सजनि ! तुम सुर में सजो तो गीत गाऊँ ,
तुम ढलो संगीत में तो धुन सजाऊँ ।। ...सजनि तुम...
रंग कलियों के हों,
मन की तरंग में।
प्रीति भंवरे सी हो,
तन की उमंग में।
गंध फूलों की लिए,
हर अंग में।
प्रीति बन उर में-
खिलो तो गुनगुनाऊँ। ....सजनि तुम... ॥
श्वांस में मन की बनो,
निश्वांस तुम।
आस के हर रंग का,
विश्वास तुम।
प्रीति का हर रंग,
तन मन में लिए।
मीत बन मन में-
बसों तो मुस्कुराऊँ । ...सजनि तुम... ॥
प्रीति के तो , बहुत-
गाये हैं तराने।
चाहता हूँ शौर्य के -
स्वर गुनुगुनाने।
तुम को हो स्वीकार , तो-
वे स्वर सजाऊँ।
मन बसी जो रागिनी,
तुम को सुनाऊँ। ...सजनि तुम... ॥
देश की खातिर, हुए-
कुर्वान कितने।
वे प्रणम्य शहीद , और -
गुमनाम कितने।
गीत गाते, गुनुगुनाते-
मुस्कुराते।
हंसते-हंसते, शूलियों पर-
झूल जाते।
उन शहीदों के सभी ,
विस्मृत तराने।
चाहता हूँ में सभी ,
वो गीत गाने।
तुम बनो मसि, तो-
कलम अपनी उठाऊँ।
सजनि ! कहदो शौर्य के स्वर गुनुगुनाऊँ,
तुम अगर आवाज़ दो वे गीत गाऊँ ॥
सजनि! तुम सुर में सजो तो गीत गाऊँ ,
तुम ढलो संगीत में तो स्वर सजाऊँ ॥
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मेरे गीतों में आकर के तुम क्या बसे,
गीत का स्वर मधुर माधुरी होगया।
अक्षर अक्षर सरस आम्रमंजरि हुआ,
शब्द मधु की भरी गागरी होगया।
तुम जो ख्यालों में आकर समाने लगे,
गीत मेरे कमल दल से खिलने लगे।
मन के भावों में तुमने जो नर्तन किया,
गीत ब्रज की भगति- बावरी होगया। ...मेरे गीतों में ..... ॥
प्रेम की भक्ति सरिता में होके मगन,
मेरे मन की गली तुम समाने लगे।
पन्ना पन्ना सजा प्रेम रसधार में,
गीत पावन हो मीरा का पद होगया।
भाव चितवन के मन की पहेली बने,
गीत कबीरा का निर्गुण सबद होगया।
तुमने छंदों में सज कर सराहा इन्हें ,
मधुपुरी की चतुर नागरी होगया। .....मेरे गीतों में..... ॥
मस्त में तो यूहीं गीत गाता रहा,
तुम सजाते रहे,मुस्कुराते रहे।
गीत इठलाके तुम को बुलाने लगे,
मन लजीली कुसुम वल्लरी होगया।
तुम जो हंस हंस के मुझको बुलाते रहे,
दूर से छलना बन कर लुभाते रहे।
भाव भंवरा बने, गुनगुनाने लगे ,
गीत कालिका -नवल-पांखुरी होगया। .....मेरे गीतों में... ॥
तुम ने कलियों से जब लीं चुरा शोखियाँ ,
बनके गज़रा कली खिलखिलाती रही।
पुष्प चुनकर जो आँचल में भरने चले ,
गीत पल्लव सुमन आंजुरी होगया ।
तेरे स्वर की मधु माधुरी मिल गयी,
गीत राधा की प्रिय बांसुरी होगया ।
भक्ति के भाव में तुमने अर्चन किया,
गीत कान्हा की प्रिय सांवरी होगया । .... मेरे गीतों में.... ॥
(२) सुर में सजो तो गीत गाऊँ ....
सजनि ! तुम सुर में सजो तो गीत गाऊँ ,
तुम ढलो संगीत में तो धुन सजाऊँ ।। ...सजनि तुम...
रंग कलियों के हों,
मन की तरंग में।
प्रीति भंवरे सी हो,
तन की उमंग में।
गंध फूलों की लिए,
हर अंग में।
प्रीति बन उर में-
खिलो तो गुनगुनाऊँ। ....सजनि तुम... ॥
श्वांस में मन की बनो,
निश्वांस तुम।
आस के हर रंग का,
विश्वास तुम।
प्रीति का हर रंग,
तन मन में लिए।
मीत बन मन में-
बसों तो मुस्कुराऊँ । ...सजनि तुम... ॥
प्रीति के तो , बहुत-
गाये हैं तराने।
चाहता हूँ शौर्य के -
स्वर गुनुगुनाने।
तुम को हो स्वीकार , तो-
वे स्वर सजाऊँ।
मन बसी जो रागिनी,
तुम को सुनाऊँ। ...सजनि तुम... ॥
देश की खातिर, हुए-
कुर्वान कितने।
वे प्रणम्य शहीद , और -
गुमनाम कितने।
गीत गाते, गुनुगुनाते-
मुस्कुराते।
हंसते-हंसते, शूलियों पर-
झूल जाते।
उन शहीदों के सभी ,
विस्मृत तराने।
चाहता हूँ में सभी ,
वो गीत गाने।
तुम बनो मसि, तो-
कलम अपनी उठाऊँ।
सजनि ! कहदो शौर्य के स्वर गुनुगुनाऊँ,
तुम अगर आवाज़ दो वे गीत गाऊँ ॥
सजनि! तुम सुर में सजो तो गीत गाऊँ ,
तुम ढलो संगीत में तो स्वर सजाऊँ ॥