
डा श्याम गुप्त की कविता -----
सुहाना जीवन...
छत पर या बरांडे में ,
या जीने की ऊपरवाली सीढ़ी पर
खेलते हुए
या लड़ते हुए,
तुमने लिया था सदैव-
मेरा ही पक्ष ।
मेरे न खेलने पर,
तुम्हारा भी वाक्-आउट ;
मेरे झगड़ने पर
पीट देने पर भी -
तुम्हारा मुस्कुराना ;
एक दूसरे से नाराज़ होने पर ,
बार बार मनाना;
जीवन कितना था सुहाना !
हे सखि!
जीवन कितना था सुहाना ॥
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छत पर या बरांडे में ,
या जीने की ऊपरवाली सीढ़ी पर
खेलते हुए
या लड़ते हुए,
तुमने लिया था सदैव-
मेरा ही पक्ष ।
मेरे न खेलने पर,
तुम्हारा भी वाक्-आउट ;
मेरे झगड़ने पर
पीट देने पर भी -
तुम्हारा मुस्कुराना ;
एक दूसरे से नाराज़ होने पर ,
बार बार मनाना;
जीवन कितना था सुहाना !
हे सखि!
जीवन कितना था सुहाना ॥