
पाकिस्तान में भारतीय टीवी चैनलों के प्रसारण पर रोक !
पाकिस्तान की मीडिया नियामक संस्था के आदेश के बाद केबल ऑपरेटरों ने भारतीय मनोरंजन चैनलों का प्रसारण बंद कर दिया है. बीबीसी , सी एन एन , जैसे कुछ अंतर्राष्ट्रीय चैनलों का प्रसारण पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में पहले ही बंद कर दिया गया था. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की सिफारिश के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय चैनलों के प्रसारण पर रोक लगाने का आदेश दिया.
ये आज के अख़बार की एक खबर मात्र है किन्तु क्या ये खबर हमारे मुँह पर मारा गया एक तमाचा नहीं है. हम गाँधी जी के अनुयायी है और कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी सामने करने वाले हैं, तो इसमें मान और अपमान जैसी कोई बात ही नहीं होती है. हम इन छोटी मोटी बातों पर ध्यान नहीं देते हैं. एक तमाचा मारा गया था (मेरी दृष्टि में) जब पाकिस्तान ने भारतीय राहत कर्मियों को वीजा देने से इंकार कर दिया और दूसरा चैनलों पर प्रतिबन्ध. अब हमारे पास कुछ और शेष है जो हम उनके सामने पेश कर वाले हैं. ६३ वर्षों के बाद भी पाकिस्तान की मानसिकता आज भी वही बनी हुई है. चाहे जितनी भी संधि कर लें और चाहे जितने युद्ध विराम - हमने हार कभी स्वीकार नहीं की और न ही वे हमें कभी हरा सके किन्तु संधि और विराम के झंडे तले विस्फोटो और गोलाबारी की साजिश सदा पलती रही है. चाहे ताशकंद समझौता हो या शिमला समझौता. इनके करने वाले अपनी गद्दी से उतरते ही या उतार दिए जाने के बाद या तो फाँसी पर चढ़ा दिए गए या निष्कासित कर दिए गए. फिर कैसा समझौता और कैसा विराम? अधिक समय तो सैन्य शासन ही चलता है. इन शासकों में बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ निर्वासन का जीवन बिता रहे हैं. ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.
शांति कौन चाहता है? पाकिस्तान की जनता अगर शांति चाहती भी है तो उसकी सुनता कौन है? फिर वे कौन लोग हैं जो शांति चाहते ही नहीं है. पाकिस्तान सरकार कभी भी किसी भी दिशा में शांति नहीं चाहती, नहीं तो इस जमीं पर आतंकवाद के स्कूल न चल रहे होते. यही कारण है कि कश्मीर विवाद कभी ख़त्म नहीं होगा. घुसपैठ कभी ख़त्म नहीं होगी और नहीं सीमा पर शांति जैसी स्थिति कभी भी बहाल होने वाली hai.
इस का उत्तर हमें किस रूप में देना चाहिए ? ये मैं प्रबुद्ध वर्ग से पूछना चाहती हूँ - क्या इन प्रतिबंधों को एक सहज प्रक्रिया समझकर हमें पचा जाना चाहिए या फिर इसका प्रत्युत्तर देना चाहिए.
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ये आज के अख़बार की एक खबर मात्र है किन्तु क्या ये खबर हमारे मुँह पर मारा गया एक तमाचा नहीं है. हम गाँधी जी के अनुयायी है और कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी सामने करने वाले हैं, तो इसमें मान और अपमान जैसी कोई बात ही नहीं होती है. हम इन छोटी मोटी बातों पर ध्यान नहीं देते हैं. एक तमाचा मारा गया था (मेरी दृष्टि में) जब पाकिस्तान ने भारतीय राहत कर्मियों को वीजा देने से इंकार कर दिया और दूसरा चैनलों पर प्रतिबन्ध. अब हमारे पास कुछ और शेष है जो हम उनके सामने पेश कर वाले हैं. ६३ वर्षों के बाद भी पाकिस्तान की मानसिकता आज भी वही बनी हुई है. चाहे जितनी भी संधि कर लें और चाहे जितने युद्ध विराम - हमने हार कभी स्वीकार नहीं की और न ही वे हमें कभी हरा सके किन्तु संधि और विराम के झंडे तले विस्फोटो और गोलाबारी की साजिश सदा पलती रही है. चाहे ताशकंद समझौता हो या शिमला समझौता. इनके करने वाले अपनी गद्दी से उतरते ही या उतार दिए जाने के बाद या तो फाँसी पर चढ़ा दिए गए या निष्कासित कर दिए गए. फिर कैसा समझौता और कैसा विराम? अधिक समय तो सैन्य शासन ही चलता है. इन शासकों में बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ निर्वासन का जीवन बिता रहे हैं. ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.
शांति कौन चाहता है? पाकिस्तान की जनता अगर शांति चाहती भी है तो उसकी सुनता कौन है? फिर वे कौन लोग हैं जो शांति चाहते ही नहीं है. पाकिस्तान सरकार कभी भी किसी भी दिशा में शांति नहीं चाहती, नहीं तो इस जमीं पर आतंकवाद के स्कूल न चल रहे होते. यही कारण है कि कश्मीर विवाद कभी ख़त्म नहीं होगा. घुसपैठ कभी ख़त्म नहीं होगी और नहीं सीमा पर शांति जैसी स्थिति कभी भी बहाल होने वाली hai.
इस का उत्तर हमें किस रूप में देना चाहिए ? ये मैं प्रबुद्ध वर्ग से पूछना चाहती हूँ - क्या इन प्रतिबंधों को एक सहज प्रक्रिया समझकर हमें पचा जाना चाहिए या फिर इसका प्रत्युत्तर देना चाहिए.