
सृष्टि रची क्यों ...अभेद भाव ---
सृष्टि रची क्यों रचयिता ने ,
जब जब मन यह भाव समाये।
क्यों आये क्यों जन्म लिया जग,
गहन प्रश्न मन को उलझाए॥
वेद पुराण शास्त्र महिमा गुण,
कर्म औ भक्ति भाव तब भायें।
अनुभव ज्ञान विवेक भाव, नर-
जीवन और जगत के पाए ॥
तब जाने निष्कर्म भाव से,
निज कर्तव्य ही करते जाना।
अपनी जग की उन्नति के हित,
जग कल्याण भाव अपनाना॥
पशु पक्षी और बृक्ष रचाए,
प्रकृति स्वभाव , विश्व हितकारी ।
मानव, बुद्धि विवेक कर्मफल,
से हो परहित का अधिकारी॥
सत औ असत के उचित ज्ञान से,
पर सेवा हित भाव बनाए।
जग हित के कर्तव्य कर्म से,
जन्मों का बंधन कट जाए॥
जो कुछ हमको मिला यहाँ पर,
यह तन यश सम्पति परिवार ।
सदुपयोग परहित में करने,
न हो मोह ममता व्यापार ॥
जो आसक्त भोग सुख संग्रह ,
चल न सके परमार्थ राह पर।
यह तन अपना, विश्व पराया,
कौन चले जग प्रेम राह पर ?
भेद-बुद्धि, आसक्ति मोह वश,
मानव होता जग से दूर।
विश्व प्रेम, प्रभु प्रेम विरत हो,
होजाता है मोह मद चूर ॥
यह शरीर ,यह सब जगती- जग ,
एक तत्व की ही है रचना।
यदि मानें , सब कुछ अपना ही,
अथवा नहीं है कुछ भी अपना ॥
यह अभेद का भाव सजे मन,
निष्काम भाव मन में उभरे।
पर कल्याण राह चल मानव,
मानव जीवन सफल करे॥
त्याग प्रेम उपकार भाव से,
विश्व प्रेम की रीति पाले।
मानव के अंतरमन में तब,
ईश प्रेम का दीप जले॥
प्रेम प्रीति की सारे जग में,
बहे सुखद शीतल पुरवाई।
मिले परम आनंद, मोक्ष सुख ,
विधिना जेहि विधि सृष्टि रचाई ॥
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जब जब मन यह भाव समाये।
क्यों आये क्यों जन्म लिया जग,
गहन प्रश्न मन को उलझाए॥
वेद पुराण शास्त्र महिमा गुण,
कर्म औ भक्ति भाव तब भायें।
अनुभव ज्ञान विवेक भाव, नर-
जीवन और जगत के पाए ॥
तब जाने निष्कर्म भाव से,
निज कर्तव्य ही करते जाना।
अपनी जग की उन्नति के हित,
जग कल्याण भाव अपनाना॥
पशु पक्षी और बृक्ष रचाए,
प्रकृति स्वभाव , विश्व हितकारी ।
मानव, बुद्धि विवेक कर्मफल,
से हो परहित का अधिकारी॥
सत औ असत के उचित ज्ञान से,
पर सेवा हित भाव बनाए।
जग हित के कर्तव्य कर्म से,
जन्मों का बंधन कट जाए॥
जो कुछ हमको मिला यहाँ पर,
यह तन यश सम्पति परिवार ।
सदुपयोग परहित में करने,
न हो मोह ममता व्यापार ॥
जो आसक्त भोग सुख संग्रह ,
चल न सके परमार्थ राह पर।
यह तन अपना, विश्व पराया,
कौन चले जग प्रेम राह पर ?
भेद-बुद्धि, आसक्ति मोह वश,
मानव होता जग से दूर।
विश्व प्रेम, प्रभु प्रेम विरत हो,
होजाता है मोह मद चूर ॥
यह शरीर ,यह सब जगती- जग ,
एक तत्व की ही है रचना।
यदि मानें , सब कुछ अपना ही,
अथवा नहीं है कुछ भी अपना ॥
यह अभेद का भाव सजे मन,
निष्काम भाव मन में उभरे।
पर कल्याण राह चल मानव,
मानव जीवन सफल करे॥
त्याग प्रेम उपकार भाव से,
विश्व प्रेम की रीति पाले।
मानव के अंतरमन में तब,
ईश प्रेम का दीप जले॥
प्रेम प्रीति की सारे जग में,
बहे सुखद शीतल पुरवाई।
मिले परम आनंद, मोक्ष सुख ,
विधिना जेहि विधि सृष्टि रचाई ॥