
पुत्रेी-दिवस पर डा श्याम गुप्त की कविता----बेटी....
बेटी
बेटी तुम जीवन का धन हो,
इस आंगन का स्वर्ण सुमन हो।
तुम हो सारे घर की छाया,
सबके मन यह प्यार समाया।
तेरा घुटनों के बल चलना,
रुदन रूठना और मचलना।
गुड्डे और गुडिया लेने को,
ज़िद करना, मनवाकर हंसना।
मम्मी ने पायल दिलवाई,
नाच-नाच कर खुशी मनाई।
पुलकित मन हो दौड दौड कर,
सारी सखियों को दिखलाई ।
दादी ने जब आग मंगाई,
झोली में भर कर ले आई।
फ़्राक जल गई खबर नहीं कुछ,
पैर जला, रोई चिल्लाई ।
जो कहें पराया धन तुझको,
वे तो सब ही अग्यानी हैं।
तुम उपवन की कोकिल मैना,
चहको कर लो मनमानी है ।
इस जग की तो रीति यही है,
सन्स्रति का संगीत यही है।
हो जब प्रियतम के घर जाना,
दुनिया की सब रीति निभाना।
यादें तो बरबस आयेंगीं,
रोते मन को सहलायेंगीं।
पर ये तो सुख के आंसू हैं,
बेटी प्रिय घर ही जायेंगी॥
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बेटी तुम जीवन का धन हो,
इस आंगन का स्वर्ण सुमन हो।
तुम हो सारे घर की छाया,
सबके मन यह प्यार समाया।
तेरा घुटनों के बल चलना,
रुदन रूठना और मचलना।
गुड्डे और गुडिया लेने को,
ज़िद करना, मनवाकर हंसना।
मम्मी ने पायल दिलवाई,
नाच-नाच कर खुशी मनाई।
पुलकित मन हो दौड दौड कर,
सारी सखियों को दिखलाई ।
दादी ने जब आग मंगाई,
झोली में भर कर ले आई।
फ़्राक जल गई खबर नहीं कुछ,
पैर जला, रोई चिल्लाई ।
जो कहें पराया धन तुझको,
वे तो सब ही अग्यानी हैं।
तुम उपवन की कोकिल मैना,
चहको कर लो मनमानी है ।
इस जग की तो रीति यही है,
सन्स्रति का संगीत यही है।
हो जब प्रियतम के घर जाना,
दुनिया की सब रीति निभाना।
यादें तो बरबस आयेंगीं,
रोते मन को सहलायेंगीं।
पर ये तो सुख के आंसू हैं,
बेटी प्रिय घर ही जायेंगी॥