
कविता दिया
कविता
दिया
*
ज़िंदगी भर
तिल-तिल कर जला,
फिर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
न किया शिकवा,
न रख गिला।
जितनी क्षमता
उतने तम को पिया,
अपनी नहीं,
औरों की खातिर जिया।
अँधेरे के विष का
नीलकंठ बन पान किया।
सकल सृष्टि को
उजाले का दान दिया।
इसीलिये,
बस इसीलिए
मरकर भी, अमर हो गया
मिट्टी का दिया।
***
२०००
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दिया
*
ज़िंदगी भर
तिल-तिल कर जला,
फिर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
न किया शिकवा,
न रख गिला।
जितनी क्षमता
उतने तम को पिया,
अपनी नहीं,
औरों की खातिर जिया।
अँधेरे के विष का
नीलकंठ बन पान किया।
सकल सृष्टि को
उजाले का दान दिया।
इसीलिये,
बस इसीलिए
मरकर भी, अमर हो गया
मिट्टी का दिया।
***
२०००